Wednesday, January 2, 2019

सबरीमला मंदिर मामला: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'हिंदू बहनों' के हक़ की याद क्यों नहीं आती?

मेरी मुस्लिम महिलाएं, बहनें, उनको मैं आज लाल किले से विश्वास दिलाना चाहता हूं. तीन तलाक़ की कुरीति ने हमारे देश की मुस्लिम बेटियों की ज़िंदगी को तबाह करके रखा हुआ है और जिन्हें तलाक़ नहीं मिला है वो भी इस दबाव में गुजारा कर रही हैं. मेरे देश की इन पीड़ित माताओं-बहनों को, मेरी मुस्लिम बेटियों को मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं उनके न्याय के लिए, उनके हक़ के लिए काम करने में कोई कमी नहीं रखूंगा और मैं आपकी आशाओं, आकांक्षाओं को पूर्ण करके रहूंगा."

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये बातें 15 अगस्त, 2018 को लाल किले से दिए अपने भाषण में कही थीं.लेकिन अपने भाषणों और बयानों में बार-बार 'मुस्लिम बहनों', 'मुस्लिम माताओं' और 'मुस्लिम बेटियों' के हक़ और इंसाफ़ की बात करने वाले वही पीएम मोदी सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर बिल्कुल अलग रुख अख़्तियार करते दिखे.

समाचार एजेंसी एएनआई की संपादक स्मिता प्रकाश ने जब तीन तलाक़ और सबरीमला मुद्दे पर प्रधानमंत्री की राय जानने चाही तो उन्होंने कहा:

दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जहां तीन तलाक़ पर पाबंदी है. इसलिए ये आस्था का मसला नहीं है. इसका मतलब ये है कि तीन तलाक़ जेंडर इक्वलिटी (लैंगिक समानता) का मसला बनता है, सामाजिक न्याय का मसला बनता है, न कि धार्मिक आस्था का. इसलिए इन दोनों को अलग कीजिए. दूसरी बात,भारत स्वभाव से इस मत का है कि सभी को समान हक़ मिलना चाहिए. हिंदुस्तान में बहुत से मंदिर ऐसे भी हैं जहां पुरुष नहीं जा सकते और पुरुष वहां नहीं जाते. मंदिर की अपनी मान्यताएं हैं, एक छोटे से दायरे में. इसमें सुप्रीम कोर्ट की महिला जज (इंदु मल्होत्रा) का जो जजमेंट है, उसको बारीकी से पढ़ने की ज़रूरत है. इसमें किसी राजनीतिक दल के दख़ल की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने एक महिला के नाते भी इसे समझकर अपने सुझाव दिए हैं. मेरा ख़्याल है उस पर भी चर्चा होनी चाहिए.

धर्मस्थलों में महिलाओं को प्रवेश दिलाने के आंदोलन से जुड़ी कार्यकर्ता तृप्ति देसाई कहती हैं, "प्रधानमंत्री को ऐसी बात बिल्कुल नहीं कहनी चाहिए थी. जैसे तीन तलाक़ में महिलाओं के साथ अन्याय होता है वैसे ही सबरीमला मामले में भी महिलाओं के साथ अन्याय होता आया है. उनके हक़ छीने जाते रहे हैं. वहां अगर 10-50 साल के पुरुष जा सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं? ये हमारे संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का अपमान है, महिलाओं का अपमान है."

आस्था के सवाल पर तृप्ति कहती हैं, "क्या महिलाओं की आस्था नहीं होती? उन्हें मंदिर में जाने से रोके जाने पर क्या आस्था से खिलवाड़ नहीं होता? वैसे, मुझे लगता है कि ये आस्था का नहीं बल्कि समानता का विषय है."

न्यूज़ वेबसाइट 'द वायर' की वरिष्ठ संपादक आरफ़ा ख़ानुम शेरवानी का मानना है कि चाहे सबरीमला का मुद्दा हो या तीन तलाक़ का, दोनों ही पितृसत्ता को चुनौती देते हैं.

उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, "हम अपने राजनीतिक नेतृत्व से कम से कम इतनी उम्मीद रखते हैं कि वो महिलाओं और लैंगिक न्याय से जुड़े मामलों पर निष्पक्ष होकर फ़ैसले लेंगे. लेकिन असल में होता ये है कि राजनीतिक पार्टियां अपनी वोट बैंक पॉलिटिक्स से अलग नहीं हो पातीं और इन दोनों मुद्दों में भी यही हुआ है."

आरफ़ा कहती हैं, "सबरीमला और तीन तलाक़ के मसलों में देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों का भी राजनीतीकरण हो रहा है. उन्हें भी अपनी सुविधा के हिसाब से स्वीकार या अस्वीकार किया जा रहा है. चूंकि तीन तलाक़ को अपराध ठहराया जाना बीजेपी की पॉलिटिक्स के अनुकूल है, वो इसे स्वीकार कर रही है. वहीं, सबरीमला में महिलाओं के महिलाओं को प्रवेश दिलाना उनके हिंदुत्व के अजेंडे के ख़िलाफ़ है इसलिए इसे ख़ारिज किया जा रहा है."

आरफ़ा मानती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का ये कहना कि सबरीमला आस्था का विषय है लैंगिक समानता का नहीं, एक समाज और लोकतंत्र के तौर हमें पिछली सदी में धकेलने की कोशिश जैसा जैसा है.

No comments:

Post a Comment