Thursday, February 21, 2019

杨凤兰走私案:坦桑尼亚判“象牙女王”监禁15年

坦桑尼亚最大城市达累斯萨拉姆一所法院经过三年多审理,裁定有“象牙女王”之称的中国女商人杨凤兰走私等罪成立,判处有期徒刑15年,充公个人全部财产。

杨凤兰被控在2000至2014年间,从坦桑尼亚向远东地区出口800件象牙产品,约400头大象在此过程中被屠杀。案件涉及金额达250万美元。

执法部门相信杨凤兰操控着非洲最大的走私象牙团伙。两名涉案的坦桑尼亚男子星期二(2月19日)同被判处各15年监禁。

专门关注濒危物种的国际自然保护联盟(IUCN)指出,偷猎象牙行为导致非洲大象数目于过去10年下跌20%至41.5万头。中国与东亚对象牙珠宝与装饰品的需求被认为是让象牙走私活动屡禁不止的原因之一。

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肯尼亚非政府组织野生动物指导(WildlifeDirect)法务经理卡拉尼(Jim Karani)是非洲首位野生动物保护法律专家。他对BBC记者表示欢迎这次判决。

卡拉尼对BBC说:“我们认为这是一次重大警告,让每一个走私野生动物分子知道,要是你犯下这种罪行,你终会被发现、抓捕和起诉,你终会被判以重刑。对你和你所拥有的一切造成莫大损失。”

中国外交部发言人耿爽星期三(20日)说:“中国政府一贯要求海外中国公民遵守当地法律法规,不袒护中国公民的违法犯罪行为。我们支持坦桑尼亚有关部门依法、公正查处和审理此案。”

“中方愿同包括坦桑尼亚在内的国际社会一道,继续为保护濒危野生动植物和遏制非法贸易作出贡献。”

法新社引述辩护律师说,杨凤兰等三名被告均会上诉。

谁是杨凤兰?
杨凤兰来自北京,是中国第一批斯瓦西里语专业的大学生,40年前被分配到坦桑尼亚担任中国援建坦赞铁路工程的翻译员。

英文《中国日报》曾报道,杨凤兰1970年代首次前往坦桑尼亚,坦赞铁路1975年完工之后,杨凤兰返回北京,在原对外贸易部(今商务部)工作,1998年重返坦桑尼亚从商。

杨凤兰在达累斯萨拉姆市中心租用了一幢两层建筑,在一楼开了一家中餐馆,在二楼成立了北京长城投资公司。

2012年,杨凤兰成为坦桑尼亚中非民间商会秘书长,之后更当上副主席。她的女儿杜非曾对BBC记者说,母亲热爱坦桑尼亚,不可能参与非法勾当。

然而,坦桑尼亚国家和跨国重罪调查组对其追查一年多,于2015年10月在一次高速追车行动中将其逮捕。

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中国舆论对坦桑尼亚的判决有何反应?
杨凤兰被捕后,中共《人民日报》旗下《环球时报》曾替其喊冤,质疑整案是坦桑尼亚当局在选举前夕的图谋。

这篇2015年10月的报道称:“在案情没有大白前,先将杨凤兰妖魔化成‘象牙女王’,并且选择这样一个微妙的时机,显然是有复杂背景的。透过西方媒体跟风炒作的不遗余力,以及‘大象行动联盟’等非政府组织的幸灾乐祸,不难看出他们到底想要什么。”

达累斯萨拉姆法院判刑后,《环球时报》网站只简要编译了法新社的报道。该报继而报道了中国外交部对判决的回应。

《环球时报》报道下方的网民评论也一面倒的支持判决,甚至要求更重判刑。一位江苏网民留言称:“败坏中国人形象,活该。”

Thursday, February 14, 2019

पुलवामा में CRPF के काफिले पर हमला करने वाला चरमपंथी कौन?

भारत प्रशासित कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुए एक आत्मघाती हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के 40 जवानों की मौत हो गई.

इस चरमपंथी हमले की ज़िम्मेदारी चरमपंथी संगठन जैश ए मोहम्मद ने ली है.

खबरों में कहा जा रहा है कि इस आत्मघाती हमले के ज़िम्मेदार 21 साल के आदिल अहमद थे.

आदिल अहमद पुलवामा के पास ही गुंडीबाग के रहने वाले थे और कहा जा रहा है कि पिछले साल ही वो जैश ए मोहम्मद में शामिल हुए थे.

आत्मघाती हमला जिस जगह हुआ वो राजधानी श्रीनगर से दक्षिण में लगभग 25 किलोमीटर दूर है और अगर आदिल के गांव की बात करें तो घटनास्थल से ये तकरीबन 15 किलोमीटर दूर है.

गुरुवार को विस्फोटकों से भरी एक स्कॉर्पियो कार ने सीआरपीएफ़ के काफिले में चल रही एक बस को टक्कर मार दी थी. इस कार में 350 किलोग्राम विस्फोटक भरा हुआ बताया जा रहा है. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक धमाके की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि इसे कई किलोमीटर दूर तक सुना जा सकता था.

आत्मघाती हमला
1998 में करगिल युद्ध के बाद जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा ने कई आत्मघाती हमले किए थे.

लेकिन ये आत्मघाती बम हमला करने वाले चरमपंथी पाकिस्तानी नागरिक हुआ करते थे. यह पहला मौक़ा है जब जैश ने दावा किया है कि पुलवामा के स्थानीय लड़के आदिल उर्फ़ वक़ास कमांडो ने ये आत्मघाती हमला किया.

यह हमला इतना ख़तरनाक था कि इसकी चपेट में आई एक बस लोहे और रबर के ढेर में तब्दील हो गई है. इस बस में कम से कम 44 सीआरपीएफ़ के जवान सवार थे.

आदिल के पिता ग़ुलाम हसन डार फेरी कर कपड़े बेचने का काम करते हैं और साइकिल पर घर-घर जाकर कपड़े बेचते हैं. आदिल के परिवार में पिता के अलावा उनकी माँ और दो और भाई भी हैं.

कहा जा रहा है कि आदिल मार्च 2018 में जैश ए मोहम्मद में भर्ती हुए. उस वक्त वह बारहवीं कक्षा के छात्र थे.

दक्षिण कश्मीर इलाके में पिछले एक साल में चरमपंथियों के ख़िलाफ़ सुरक्षा बलों ने कई बड़े अभियान छेड़े हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक साल 2018 में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के अभियान में 230 चरमपंथियों की मौत हुई. भारतीय सुरक्षा अधिकारियों ने ये भी दावा किया था कि इन अभियानों के बावजूद कश्मीर घाटी में अब भी लगभग 240 चरमपंथी सक्रिय हैं.

पुलिस सूत्र ये भी बताते हैं कि आदिल का चचेरा भाई समीर अहमद भी चरमपंथी है और आदिल के जैश ए मोहम्मद में शामिल होने के एक दिन बाद ही समीर भी जैश में शामिल हो गए.

समीर ने कश्मीर यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई छोड़कर चरमपंथी संगठन का दामन थामा था.

आदिल के गांव गुंडीबाग में तीन बार नमाज ए जनाज़ा पढ़ा गया. इस दौरान वहाँ भारी तादाद में लोग इकट्ठा थे.

आदिल ने आत्मघाती हमले से पहले एक वीडियो भी बनाया था. इस हमले में उसने आत्मघाती हमला करने की बात कही थी. इसके अलावा आदिल अहमद का एक फोटो भी सामने आया है.

Thursday, February 7, 2019

पाकिस्तान के मीडिया से पश्तून आंदोलन ग़ायब, कश्मीर पर हो रही बात

पाकिस्तान में कुछ प्रदर्शन अख़बारों की सुर्खियों में जगह पाते हैं और कुछ नहीं, ऐसा क्यों होता है?

बीबीसी संवाददाता एम इलियास ख़ान ने मानवाधिकारों के हनन से जुड़ी एक कहानी की पड़ताल की, जिसे मीडिया बताना नहीं चाहता और अधिकारी उस पर कुछ भी कहने से बच रहे हैं.

पाकिस्तान का मीडिया अब सरकारी नीतियों के मौलिक विरोधाभास को रिपोर्ट करने के लिए संघर्ष कर रहा है.

इस बार इस्लामाबाद के राष्ट्रीय प्रेस क्लब के बाहर यह ज़्यादा देखने को मिला. यहां सैकड़ों की संख्या में प्रतिबंधित चरमपंथी समूह से जुड़े धार्मिक मदरसों के छात्र प्रदर्शन कर रहे थे.

क्लब के बाहर एक बड़ा सा मैदान है, जहां अक्सर प्रदर्शनकारी जुटते हैं और अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं.

छात्र यहां कश्मीर दिवस के मौके पर इकट्ठा हुए थे. भारत प्रशासित कश्मीर में सैन्य बलों द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों के हनन को चिह्नित करने के लिए हर साल पाकिस्तान में कश्मीर दिवस मनाया जाता है. इस दिन यहां सरकारी छुट्टी होती है.

लेकिन कश्मीर रैली के दौरान पाकिस्तान की पुलिस उन युवाओं को चिह्नित और गिरफ़्तार करने में व्यस्त थी, जो उसी जगह पर आयोजित होने वाली दूसरी रैलियों के लिए आए थे.

इन युवाओं का संबंध किसी चरमपंथी संगठन से नहीं था. ये दक्षिणपंथी अभियान से जुड़े थे, जो अफ़ग़ानिस्तान सीमा से सटे पश्तून इलाक़ों में पाकिस्तान सेना द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ हल्ला बोलने आए थे.

बीते मंगलवार की शाम तक पुलिस ने पश्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन से जुड़े 30 से ज़्यादा कार्यकर्ताओं गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें एक ट्रक में भर कर थाने ले गई.

वहां मौजूद मीडिया ने हर एक गिरफ़्तारी को अपने कैमरे में क़ैद किया लेकिन ये तस्वीरें न तो टीवी पर ब्रेक हुईं और न ही अगले दिन अख़बारों की सुर्खियां बनीं.

पाकिस्तान के छह क़बायली ज़िले अब अफ़ग़ानिस्तान से भागे तालिबानी लड़ाकों का आसरा गृह बन गए हैं. ये लड़ाके 9/11 के हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीकी आक्रमण के बाद वहां से भागे थे.

कई लोगों का कहना है कि इन ज़िलों के तालिबानीकरण की अनुमति पाकिस्तान सरकार की एक नीति के तहत दी गई थी, जिससे अफ़ग़ानिस्तान को भारत का मज़बूत सहयोगी बनने से रोका जाए.

बाद में तालिबान की गुटबंदी ने पाकिस्तानी सेना को क़बायली प्रतिद्वंदियों में बदल दिया, जिसके बाद सेना और उनके बीच संघर्ष की स्थिति बन गई.

इनके बीच हुए संघर्षों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई मामले सामने आए. हज़ारों नागरिक मारे गए. 30 लाख से ज़्यादा लोग एक से ज़्यादा बार विस्थापित होने को मजबूर हुए.

यह कई सालों तक चलता रहा. पिछले साल पश्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन ने ऐसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को सूचीबद्ध किया, जिसे सेना और तालिबान ने अंज़ाम दिया था.

ऐसे मामलों को मीडिया में कवरेज भी मिला, लेकिन पिछले साल जून के बाद मीडिया पर कथित रूप से सेना ने दबाव डालना शुरू किया और पश्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन को कवरेज देने से मना किया जाने लगा.

धीरे-धीरे मामलों के विश्लेषण और कवरेज मीडिया से गायब होने लगे, न सिर्फ छोटे अख़बार या टीवी से बल्कि बड़े मीडियाघरानों ने भी इस पर चुप्पी साध ली.

कई कहते हैं पश्तून तहफ़्फ़ुज़ आंदोलन मीडिया स्क्रीन से पूरी तरह ग़ायब हो गया है.

सरकार यहीं नहीं रुकी, वो आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर भी कार्रवाई करने लगी. उन्हें गिरफ़्तार किया जाने लगा और वो इस बात से आश्वस्त हैं कि इसका कोई भी कवरेज मीडिया में नहीं आएगा.

बीते सप्ताह बलूचिस्तान में पश्तून आंदोलन पर कार्रवाई के दौरान एक बड़े कार्यकर्ता की मौत हो गई थी.

इसी के ख़िलाफ़ मंगलवार को प्रेस क्लब के बाहर पश्तून तहफ़्फ़ुज आंदोलन के मुखिया मंज़ूर पस्तीन ने विरोध प्रदर्शन किया था.